बहुत दिन से ढूंढ रही थी, कुछ अच्छा हिंदी में पढ़ने को, सीखने को। पर कुछ अच्छा ही नहीं लगता था।
आज मैं इतने दिन बाद घर आयी, जयपुर, तो सामने मधुरिमा और परिवार वाले छोटे अखबार रखे थे। जो साप्ताहिक बुधवार को आते थे, भास्कर और पत्रिका के साथ। उन्हें चाय के साथ पढ़ के इतना अच्छा लगा, मैं बता नहीं सकती। फिर तेरी याद आयी।
दोस्त: जयपुर में तो ठंड होगी।
मैं: हाँ। आज गुनगुनी धूप थी। मैं डैड के साथ छत पे गयी, अखबार लेकर। आसपास के घरों के पेड़-पौधों पे, आधे उगे, पपीता अनार दिखे। हम क़यास लगाने लगे, कड़वे होंगे या मीठे, सुकून था उन बातों में। बस मज़ा आया। इतने दिन बाद वो सादगी भरी ज़िन्दगी वाला पल, जो बचपन का रोज़ाना होता था, वो मिला।
दोस्त: क्या मस्त बात है ये तो।
मैं: घर में बैठ के चाय के साथ अखबार पढ़ने का सुकून खत्म सा हो गया है आजकल। आज हम लोगों की भाषा बोली, कुछ भी साफ़ नहीं है। कई बार ड्रामा, एक्टिंग करते लोगों को देखा है, भाषण देते सुना है, मीठी हिंदी का स्वाद नहीं पड़ता कानों में।
दोस्त: क्यूंकि शांति से अखबार पढ़ते ही नहीं अब हम, बड़े होके। हिंदी पढ़ना लिखना हमने बचपन में ऐसे घर में रखे अखबारों से ही सीखा था।
चंपक
दोस्त: तुम्हे चंपक याद है?
मैं: हां! मेरी सबसे फेवरेट हुआ करती थी। जब नानाजी के घर जाया करती थी, तो ढूंढ़ती थी कोने-कोने में की नानाजी ने कहाँ छुपा के रखी है। गद्दे के नीचे एक कोने में दबी हुई मिलती थी, वो भी तो पढ़ते थे चंपक।
दोस्त: मेरी भी! और बाल भास्कर भी।
मैं: मैंने सीनियर हिंदी कहानी की किताबों से नहीं, पत्रिका और मधुरिमा से सीखी है। जूनियर हिंदी चंपक और बाल भास्कर से।
दोस्त: हाँ बचपन में कितनी चंपके पढ़ी है।
मैं: इस लेख ने याद दिलाया, घर में पहले टेबल के नीचे अखबार के साथ साथ, पत्रिकाएं और चंपक या पिछले हफ्ते की बाल भास्कर रखी होती थी।
मैं: मन अच्छा हो जाता है सुबह-सुबह ऐसे प्यारे प्यारे छोटे लेख पढ़ के।
दोस्त: अब तो शांति गायब हो गई है, हर चीज़ जल्दी-जल्दी चाहिए सबको।
राजकुमार केसवानी, भोपाल
मैं: एक सुना हो तो राजकुमार करके, म्यूजिक पे लिखते थे।
दोस्त: उनका संडे पेपर में आता था शायद। आपस की बात।
मैं: राजकुमार केसवानी, भोपाल, वो पिछले साल फरिश्ता बन गए। मैं उनका कोई पुराना लेख ढूंढ रही हूँ, कुछ मिले तो भेजो। कलेक्शन बनाना है पर्सनल, नोटिस बोर्ड पे लगाना है बाहर, आते जाते लोगों को अच्छा लगे। कुछ अच्छे पुराने लेखक, ऐसे जिनसे रोज़ का दिन कटता था हमारा।
किताबे रोज़ पढ़ना आसान नहीं आज की ज़िन्दगी में।
दोस्त: लेकिन हम शांति से दिन के शुरुआत में या अंत में भी अखबार पढ़ते है, कुछ कहानियां, कुछ पहेलियाँ, कुछ नए शब्द, कुछ हसीं-मज़ाक।
मैं: रीडिंग तो ये ही है।
दोस्त: याद है वो क्या कहते थे?
मैं: क्या?
दोस्त: आज की बात इधर ही खल्लास है। नमस्ते। बाकी अगले हफ्ते। जय-जय
https://www.bhaskar.com/news/MAG-article-of-rajkumar-keswani-3641899.html
(इस लेख का शीर्षक, राजकुमार केसवानी के भोपाल गैस ट्रेजेडी होने से पूर्व चेतावनी देने वाले लिखे उनके पहले लेख को सलाम है।)
दोस्त: चिन्मय और मैं: प्रिया