सेठ जी से मैं पुछेया
“सेठ जी, म्हारो देस कैसा हो?”
दोपहर को ऑफिस की संकरी सी गली के बड़े से ढाबे में मैं जाके बैठू
तो मख्हन में लथपथ एक मस्का बन खिला दे
मुझे छोटा न लगे, मुझे अकेले वहां डर भी न लगे,
मेरा सर दर्द कम हो जाये, बस ऐसी वो बेरा, मुझे चाय पिला दे
सेठ जी बोलैया, “मेरा देस ऐसा हो।”
सेठ जी मने बड़ा सुहावना लाग्या।
मैं फेर बात बिन बात करने पुछेया,
“पण सेठ जी, धंदा कैसा हो?”
तो सुनो आगे,
अब रोता है मन मेरा, क्यों ये खाना नहीं हक़ तेरा?
हर गली में मॉल है, हर गली में गूगल
नहीं है उनके खाने में घर की याद और मीठी नींद देने का बल
अतिथि देवो भव:, मैंने मतलब जाना
खाना खिलाना और प्रेम से खिलाना
मन रो दे मेरा, चेहरा याद रखूं मैं तेरा
ऐसा था वो फुर्तीला, आर्डर लेता और मिर्च तेज़ हो गयी बताने वाला बैरा।
बचपन में, पुराने शहर में, टूटी इमारतों में देखा था
ऐसी जाली वाली खिड़कियाँ, ऐसी हरी-नीली दीवारें, और ऐसी मेज़बानी
यहाँ आके, थाली में फैली दाल और मखमल सी रोटी खाके
सिमट गयी है धरोहर फिल्मों तक, सोच के होती है हमारी सोच पर हैरानी।
“तो क्या समझे तुम?
धन्दा कैसा हो?
विरासत में मिली कला को ज़िंदा रखे जो,
प्रेम से सरोबार करदे मन को वो, धन्दा हो तो ऐसा हो।”
सेठ जी की बात सुन मैं घर को चल दिया बीवी को समझाने
उल्टा वो मुझे लगी घुड़की पिलाने
क्यों नहीं ले जाते वहां मुझे?
सेठ जी ने जगह तो बताई है न तुझे
अहमदाबाद, पुराने शहर की गली में छुपा है, आज सवेरे ४ बजे से खुला है
देखा नहीं आज से पहले मैंने भी जिसे
सेठ जी कहे की,
ईरानी कैफ़े कहते है उसे।
– 03.04.2022 (childhood of Altaf Lakhani)
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